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कैसे शुरु हुई कांवड़ यात्रा ?

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श्रावण के महीने में भगवान शिव के कई भक्त कांवड़ लेकर निकलते हैं, ऐसा माना जाता है की कांवड़ ले जाने वाले लोगों को पुण्य प्राप्त होता है। कांवड़ में भक्त गंगा जल भरकर यात्रा कर किसी प्रसिद्ध मंदिर में भगवान शिव को जल अर्पित करते हैं।

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कई जगहों पर कांवड़ को लेकर अलग अलग मान्यताएं हैं हिन्दू धर्म के मुताबिक श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कांवड़ बैठाकर हरिद्वार की यात्रा पर निकले थें। वहीं गंगा में स्नान कर वापिस लौटते समय गंगा जल लेकर आए और शिवलिंग को जल अर्पित किया था। 

जानिए इसका इतिहास

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इसके अलावा कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान पशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर धाम से गंगा जल बढ़कर शिवलिंग पर चढ़ाया था। उसी के बाद से कांवड़ की यह परंपरा चलती आ रही है।

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कांवड़ भी कई प्रकार की होती हैं, खड़ी कांवड़, झांकी कावड़ और डाक कांवड़। हालांकि इसे पहले पैदल ही शुरू किया गया था लेकिन समय और सुविधा अनुसार कई प्रकार के नियम बन गए हैं। 

इसके 3 प्रकार 

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खड़ी कांवड़ को सबसे कठिन माना गया है इसमें कांवड़ियों न तो बैठ सकते हैं और न ही कांवड़ को अपने कंधे से सकता हैं। इसमें कांवड़िया गंगा जल लेने जाते हैं।

खड़ी कांवड़

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झांकी  कावड़ में भक्त शिव की मूरत को किसी जीप, ट्रक या खुली कार में रख उनका श्रृंगार कर झांकी में कांवड़ निकालते हैं। इसमें कांवड़िया भजनों पर काफी थिरकते हुए जाते हैं। 

झांकी कांवड़

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वैसे तो डांक कावड़ झांकी कांवड़ जैसी ही होती है लेकिन इसमें मंदिर पहुंचने से 36 या 24 घंटे पहले ही शिव भक्त गाड़ियों और ट्रक से उतरकर कांवड़ में जल भरकर दौडते हैं। कांवड़ को कंधे पर रखकर भागना काफी कठिन होता है लेकिन लोग इसका पहले से ही संकल्प लिया करते हैं। 

डांक कांवड़

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