Bihar Assembly Election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर राज्य का राजनीतिक माहौल गरमा रहा है। सभी राजनीतिक दल जोर-शोर से चुनावी प्रचार कर रहे हैं। लेकिन, इन सबके बीच यह समझना ज़रूरी है कि बिहार की राजनीति में जातीय समीकरणों की हमेशा से अहम भूमिका रही है। नीतीश कुमार को बिहार का सफल नेता बनना इस बात की पुष्टि करता है कि कुर्मी-कोइरी समुदाय अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर सजग और सक्रिय है। न सिर्फ़ वह सजग है, बल्कि अपने समाज के नेता का उत्साहपूर्वक समर्थन भी करता रहा है।
बिहार के गाँवों और शहरों में रहने वाले इस समुदाय के वर्गों में इसका प्रभाव साफ़ दिखाई देता है। पिछले कुछ सालों से बिहार की सत्ता की चाबी इन्हीं के हाथ में रही है। इसका साफ़ मतलब है कि कुर्मी-कोइरी समुदाय बिहार में एक साइलेंट पावरहाउस रहा है। साथ ही नीतीश कुमार इनके पसंदीदा नेता हैं। इसी के बदौलत नीतीश कुमार पिछले 20 सालों से बिहार की सत्ता में एक सुपरकॉप की भूमिका में रहे हैं।
कुर्मी-कोइरी को क्यों कहा जाता है साइलेंट पावरहाउस? – Bihar Assembly Election 2025
मालूम हो कि बिहार में कुर्मी समुदाय की कुल आबादी 2.87% है, जबकि कोइरी समुदाय 4.2% है। यानी बिहार का 7% से ज़्यादा वोट शेयर लव-कुश समीकरण से जुड़ा है। जिसका असर बिहार विधानसभा की लगभग 50 से 60 सीटों पर साफ़ दिखाई देता है। इनमें राजधानी पटना, सारण, आरा, बक्सर, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण, मुंगेर, समस्तीपुर और खगड़िया आदि शामिल हैं। जहाँ कुर्मी-कोइरी समुदाय जीत-हार तय करने में अहम भूमिका निभाता रहा है। जिसे बिहार में एक साइलेंट पावरहाउस के तौर पर देखा जाता है। वर्तमान में इस समुदाय के अधिकतर लोग जेडीयू से जुड़ा हुआ रहा है। जिसका फायदा नीतीश कुमार को मिलता रहा है।
बता दें कि नीतीश कुमार 2000 में पहली बार सिर्फ सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे। इसकी वजह यह थी कि वे विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाए थे। इसके बाद उन्होंने 2005 में मुख्यमंत्री के रूप में अपना पहला पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया। तब से वे नौ बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे हैं। जो कुर्मी-कोइरी समुदाय के लिए खुशी की बात है।
इन दिनों नीतीश कुमार ओबीसी के एक खास वर्ग के चहेते हैं, लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि उच्च-पिछड़ी जातियों में शामिल कुर्मी समुदाय के पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नहीं, बल्कि सतीश प्रसाद सिंह थे। वे 28 जनवरी 1968 से 1 फ़रवरी 1968 तक सिर्फ़ चंद दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री रहे। यह न सिर्फ़ इतिहास में मुख्यमंत्री के रूप में उनका सबसे छोटा कार्यकाल था, बल्कि इस समुदाय के लिए एक प्रतीकात्मक राज्याभिषेक भी था।
बिहार की राजनीति में लव-कुश समीकरण कितना कारगर? – बिहार विधान सभा चुनाव 2025
जॉर्ज फर्नांडिस, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रामसुंदर दास, शकुनि चौधरी और महाबली सिंह जैसे नेताओं ने 1970 से 1990 के दशक तक कोइरी समुदाय को सशक्त बनाया। अब उपेंद्र कुशवाहा और सम्राट चौधरी जैसे नेताओं ने इस सामाजिक आधार को आगे बढ़ाने का काम किया है। वर्तमान में नीतीश कुमार ने इस समुदाय को संस्थागत रूप दिया है और इसे लव-कुश समीकरण से जोड़ा है। एक रणनीति जिसकी शुरुआत उन्होंने 1990 के दशक में की थी, जब बिहार की राजनीति में बदलाव का बिगुल बज रहा था।
उस समय “भीख नहीं, हिस्सेदारी चाहिए” के नारे ने बिहार की राजनीति को बदल दिया। इसका असर आज भी पटना के 1 अणे मार्ग पर देखा जा सकता है। इसने न केवल लव (कुर्मी) और कुश (कोइरी) को एक राजनीतिक समीकरण में एकीकृत किया, बल्कि दोनों जातियों को एकजुट करके बिहार की राजनीति में एक नया राजनीतिक इतिहास भी गढ़ा। जिसके बदौलत नीतीश कुमार के कार्यकाल में कुर्मी समाज की ताकत बढ़ी और कोइरी समाज भी सम्मान के शिखर पर पहुंचा।






