Supreme Court: उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में केंद्र से 2019 के मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के तहत दर्ज आपराधिक मामलों पर डेटा प्रदान करने को कहा है। जो मुस्लिम पुरुषों द्वारा ट्रिपल तलाक के उचारण को अपराध मानता है। यह निर्देश चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने उस समय दिया जब कई मुस्लिम संगठनों द्वारा इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई हो रही थी। इन याचिकाओं में यह तर्क दिया गया था कि 2017 के शयरा बानो मामले के बाद ट्रिपल तलाक का कोई कानूनी प्रभाव नहीं रह गया है, ऐसे में इसे अपराध बनाना उचित नहीं है। यहां इस मामले के प्रमुख घटनाक्रमों का विवरण दिया गया है।
ट्रिपल तलाक कानून और उसकी कानूनी चुनौती
तलाक-ए-बिद्दत (ट्रिपल तलाक) प्रथा, जिसमें एक मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को तीन बार “तलाक” कहकर तलाक दे सकता था, 2017 तक कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त थी। हालांकि, शायरा बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रथा को असंवैधानिक करार दिया, क्योंकि यह महिला के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती थी। कोर्ट के इस निर्णय के बावजूद, कुछ मुस्लिम समुदायों में ट्रिपल तलाक जारी रहा, जिसके बाद 2019 में केंद्र सरकार ने मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पेश किया। इस कानून ने ट्रिपल तलाक को अपराध बना दिया और इसे दंडनीय बना दिया।
Supreme Court में याचिकाकर्ताओं का तर्क: ट्रिपल तलाक को अपराध नहीं बनाना चाहिए
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान, विभिन्न मुस्लिम संगठनों द्वारा प्रस्तुत याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि ट्रिपल तलाक को अपराध बनाना सही नहीं है, क्योंकि इसे 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही अवैध करार दिया था। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि शयरा बानो मामले के बाद, तीन बार “तलाक” कहकर कोई तलाक नहीं हो सकता, ऐसे में इसे अपराध बनाना अनावश्यक है। हालांकि, बेंच ने याचिकाकर्ताओं के तर्क को खारिज करते हुए केंद्र से ट्रिपल तलाक के मामलों में दर्ज FIRs (प्रथम सूचना रिपोर्ट) और चार्जशीट्स की संख्या पर डेटा पेश करने को कहा।
सरकार का बचाव: महिला अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानूनी आवश्यकता
सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए एक हलफनामे में केंद्र ने 2019 के कानून की संवैधानिकता का बचाव किया। केंद्र का कहना था कि हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल तलाक को खारिज कर दिया था, लेकिन इसका प्रभावी रूप से पालन नहीं हो पाया और यह प्रथा कुछ समुदायों में जारी रही। केंद्र ने यह भी कहा कि ट्रिपल तलाक की शिकार महिलाओं के पास इससे पहले कोई कानूनी उपाय नहीं था, क्योंकि इस पर कोई दंडात्मक प्रावधान नहीं था।
केंद्र ने यह भी कहा कि यह कानून इसलिए आवश्यक था ताकि मुस्लिम पुरुषों को तत्काल और अमान्य तलाक देने से रोका जा सके। हलफनामे में यह बताया गया कि तलाक-ए-बिद्दत की प्रथा न केवल महिलाओं को नुकसान पहुँचाती है, बल्कि यह विवाह संस्थान की पवित्रता को भी नुकसान पहुँचाती है, और इसे सार्वजनिक गलत काम माना गया। केंद्र ने यह भी कहा कि संसद ने मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम को पारित कर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए यह कदम उठाया।
सरकार ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट को इस कानून की “समझ” पर सवाल उठाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि यह संसद का कार्यक्षेत्र है कि वह समाज की भलाई के लिए क्या ठीक है। केंद्र ने यह कहा कि कानून बनाने और अपराधों को परिभाषित करना राज्य का मूल कार्य है, और इसे सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए। इसके अलावा, केंद्र ने 2018 के मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अध्यादेश का भी उल्लेख किया, जो 2019 के कानून के समान था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सितंबर 2018 में इस अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया था।
आगे का रास्ता: Supreme Court का अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की अंतिम सुनवाई के लिए 17 मार्च से शुरू होने वाले सप्ताह में तारीख तय की है। कोर्ट केंद्र द्वारा प्रस्तुत डेटा और दोनों पक्षों के तर्कों को ध्यान में रखते हुए अंतिम निर्णय लेगा। जबकि केंद्र सरकार कानून को बरकरार रखने का पक्ष रख रही है, याचिकाकर्ता इसकी वैधता को चुनौती दे रहे हैं।